JAGADGURU SHRI KRIPALU JI MAHARAJ LIFE STORY

HIS APPEARANCE
जगद्गुरू श्री कृपालु जी महाराज का जन्म शरत्पूर्णिमा की शुभ रात्रि में एक छोटे से ग्राम मनगढ़ में हुआ। इनके पिताजी श्री लालता प्रसाद त्रिपाठी एवं माता जी का नाम श्रीमती भगवती देवी था। बालक को प्रेम पूर्ण दृष्टि से निहारते हुए मैया ने उसे रामकृपालु त्रिपाठी नाम दिया।
इनके जन्म के समय सभी ग्रामवासी आनन्दमग्न हो गए और सम्पूर्ण वातावरण में विशेष सुगन्ध व्याप्त हो गई।

MIRACULOUS CHILDHOOD
आपकी प्रारंभिक शिक्षा मनगढ़ गाँव के ही प्राइमरी स्कूल में हुई। मेधावी छात्रों की भाँति ये सदा ही कक्षा में प्रथम उत्तीर्ण होते रहे। अपने अध्यापकों के ये सदा अत्यन्त प्रिय रहे एवं उनको अपनी अलौकिक प्रतिभा से हतप्रभ कर देते थे।
अपने क्षेत्र और कुल की परम्परा के अनुसार सन् 1933 में ग्यारह वर्ष की अल्पायु में ही शुभ मूहूर्त में इनका विवाह सम्पन्न हो गया।

HIS STUDIES
सन् 1934 में मिडिल पास करने के पश्चात् सन् 1935 में आप अपने बड़े भाई श्री रामनरेश त्रिपाठी के पास महू (इन्दौर) चले गये। जहाँ आपने संस्कृत साहित्य इत्यादि विषयों का अध्ययन किया।
सन् 1940 में आप चित्रकूट पधारे जहाँ राम नाम संस्कृत विद्यालय में में पुनः व्याकरण का अध्ययन किया (प्रथमा, मध्यमा) पश्चात् इन्दौर गये।
सन् 1945 तक आपने लौकिक दृष्टि से कई डिग्री प्राप्त कर ली जैसे
संस्कृत साहित्याचार्य- कलकत्ता विश्वविद्यालय (इन्दौर परीक्षा केन्द्र) 1943
व्याकरणाचार्य – क्यून्स कॉलेज (वाराणसी) से संस्कृत व्याकरण की उपाधि 1944
आयुर्वेदाचार्य – सांग आयुर्वेदिक विद्यालय ब्रह्मचर्य आश्रम, इन्दौर कॉलेज से पढ़ाई की।
अखिल भारतीय विद्यापीठ दिल्ली (इन्दौर परीक्षा केन्द्र) 1945 इत्यादि।
उज्जैन भी कुछ समय रहकर ज्योतिषाचार्य का अध्ययन किया परन्तु परीक्षा नहीं दी।

DIVINE SUBMERSION
लगभग 16 वर्ष की आयु में किसी से बिना कुछ कहे प्रेमोन्मत्त अवस्था में चित्रकूट के जंगलों की ओर चल दिये। चित्रकूट सती अनुसुइया आश्रम, शरभंग आश्रम इत्यादि बीहड़ जंगलों में पूर्ण परमहंसावस्था में कुछ दिन रहे।
इस प्रकार चरवारी से महोवा और झांसी, आगरा, मथुरा होते हुए आप वृन्दावन पहुँचे। उनके लिए रात्रि और दिन कुछ नहीं था, कभी दो बजे रात्रि को ही सेवा कुंज चले गए, निधिवन चले गए, यमुना किनारे चले गए।
प्रेम में विभोर भावस्थ अवस्था में जो भी उनको देखता वह आश्चर्य चकित होकर यही कहता कि यह तो प्रेम के साकार स्वरूप हैं, भक्तियोगरसावतार हैं। उस समय कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सका कि ज्ञान का अगाध, अपरिमेय समुद्र भी इनके अन्दर छिपा हुआ है; क्योंकि प्रेम की ऐसी विचित्र अवस्था थी कि शरीर की कोई सुधि बुधि नहीं थी, घण्टों-घण्टों मूर्च्छित रहते, कभी उन्मुक्त अट्टहास करते, तो कभी भयंकर रुदन। खाना-पीना तो जैसे भूल ही गये थे। नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित होती थी, कभी किसी कटीली झाड़ी में वस्त्र उलझ जाते तो कभी किसी पत्थर से टकरा कर गिर पड़ते। धीरे धीरे तो वस्त्र भी कब छूट गये कोई होश नहीं।

SERVICE TO SOULS-
इस प्रकार चरवारी महोवा और झांसी, आगरा, मथुरा होते हुए आप वृन्दावन पहुंचे। 1938 की बात है, जब आचार्य श्री वृन्दावन आए उस समय सावन माह था।
सावन 4 में ब्रज में काफी उत्सव होते हैं, उसी महीने में इन्होंने अपनी उसी भावोन्मत्त अवस्था में ब्रज में प्रवेश किया। ‘राधे राधे’ ‘हा राधे’ गधे जू’ ‘श्यामा जू’ ‘कृष्ण कृष्ण’ कहते हुए आकर ऐसे ही अचानक एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। कुछ भक्त गण वहाँ से जा रहे थे। देखा एक तपस्वी मूर्ति बैठी हुई है, पास में आए और कहा कि आप कहाँ ठहरे हैं? कोई उत्तर नहीं मौन, तो उन लोगों ने कहा कि आज्ञा हो तो यहाँ में धर्मशाला है वहाँ आप रह सकते हैं। श्री महाराज जी उठे और चल दिए। ग्वालियर वाली धर्मशाला में एक कमरा इनको दे दिया। महाराज जी उस कमरे के अन्दर रहने लगे लेकिन उनके लिए रात्रि और दिन कुछ नहीं था, कभी दो बजे रात्रि को ही बाहर निकल गए, सेवा कुंज चले गए, निधिवन चले गए, यमुना किनारे चले गए। तो यह बात प्रसिद्ध हो गयी कि वह किसी से बोलते भी नहीं हैं। कभी-कभी कुछ गुनगुनाते हैं, कभी कोई श्लोक बोलते हैं, कभी एक दो पंक्ति नाम संकीर्तन करते हैं अपने भाव में, कभी चुप हो जाते हैं, कभी बेहोश हो जाते हैं। तो इस बात की चर्चा पूरे ब्रजमण्डल में हो गयी।

उस समय आगरा में एक भक्त जानकी प्रसाद माथुर रहते थे। उनको ब्रिटिश सरकार ने राय साहब की पदवी दी थी। सम्भ्रान्त प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उनकी रुचि थी- सब सन्तों की सेवा करने की। ये भी अपने एक मित्र लक्ष्मण स्वरूप भटनागर के साथ वृन्दावन में इनसे मिलने गए तथा खाना भी साथ लेकर गए। महाराज जी की स्वीकृति से यह खाना इन्होंने थाली में परोसा। ये शायद पहली बार महाराज श्री ने दो वर्ष के बाद अपने हाथ से भोजन किया होगा। जानकी प्रसाद जी इनको मथुरा ले आये। पूछा आप स्नान करेंगे। दो वर्ष में स्नान किया कि नहीं कुछ पता नहीं। अगर किसी नदी में कूद गये तो घंटों उसी में घुसे रहते। जानकी प्रसाद जी ने इनको स्नान कराया, वे समझ गये यह कोई अलौकिक महापुरुष हैं। श्वेत वस्त्र धारण कराये और सोने के बटन वाला कुर्ता पहनाया। बाहरी रूप परिवर्तित हो गया। शीघ्र ही वह एक नाई को भी बुला लाये और इनके इंग्लिश कट बाल कटा दिये। सभी भक्त जो इनसे परिचित थे व्याकुल हृदय से प्रार्थना कर रहे थे। हे पतितपावन ! दीनबन्धु! अकारण करुण!
तुम इसी अवस्था में रहोगे तो किस प्रकार से अपने इन नामों को सार्थक करोगे, जीव कल्याण कैसे होगा? हे कलियुग पावनावतार! जीवों को प्रेय से श्रेय की ओर उन्मुख करो। विषय भोगों में लिप्त विष पीने वालों को प्रेमामृत का पान कराओ। भक्तवत्सल प्रभु तक उनकी पुकार पहुँच गई। अब परमहंसावस्था से धीरे धीरे सामान्यावस्था में आना प्रारम्भ किया। कुछ सामान्य वार्तालाप किया। तुम लोग कहाँ पर रहते हो? क्या करते हो? क्योंकि अब इन्होंने अपने आपको तथा अपने भावों को कुछ छिपा लिया था। अगर उस भाव में ही रहते तो कभी किसी जीव से विशेष वार्तालाप कर ही नहीं सकते थे। पश्चात् सायंकाल सत्संग हुआ जो इनका पहला सत्संग था। ये सिंहासन पर बैठ गए और नाम संकीर्तन प्रारम्भ किया- ‘भजो गिरिधर गोविन्द गोपाला।’ लोगों ने जैसे ही पहला वाक्य सुना, उनको लगा जैसे हृदय में कोई ब्रजरस उड़ेलता जा रहा है। सभी को यही अनुभव हुआ राधारानी की कृपा शक्ति ही साकार होकर प्रेम रस की वर्षा कर रही है।

अब श्री महाराज जी भक्तों के साथ वार्तालाप भी करने लगे थे। कुछ परामर्श भी देते थे। लेकिन सत्संग के समय पूरे समय भाव में रहते थे। उस समय ये ढोलक पर कीर्तन कराते थे। इन्होंने कभी ढोलक बजाना सीखा नहीं, ये बिना सीखे हुए भी सब कुछ जानते थे। ढोल पर इनका हरे राम वाला कीर्तन बहुत प्रसिद्ध था। इन दिनों अधिकतर हरे राम संकीर्तन ही होता अथवा ‘राधे गोविन्दा भजो वृन्दावन चन्दा भजो’ की सुमधुर ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण गूंज जाता।

भजो गिरिधर गोविन्द गोपाला कीर्तन कराते कराते प्रायः हरि बोल हरि बोल का मधुर संकीर्तन प्रारम्भ करके आचार्य श्री सभी को प्रेम रस में डुबा देते। शरीर बाह्य ज्ञान शून्य हो जाता। महाभाव की स्थिति में अत्यधिक द्रुतगति से घूमना प्रारम्भ करते- चक्र की भाँति, कुछ दिखाई नहीं देता चरणारविन्द कहाँ है, पृथ्वी पर या पृथ्वी से ऊपर, कभी-कभी एक चरण से ही नृत्य करते। नृत्य करते करते एक प्रकार की उन्मादयुक्त बेहोशी सी आ जाती और मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर जाते। घण्टों घण्टों इस अवस्था में रहते विस्मय भरी दृष्टि से आशा लगाये भक्त बैठे रहते कि कब प्रभु होश में आयें और उनसे कुछ वार्तालाप करें। अब धीरे धीरे सामान्यावस्था में आने लगे और लोगों से कुछ बातचीत भी करने लगे।

RADHA KRISHNA LOVE-
इस समय की भक्ति साधना में सायं से रात्रि दो बजे तक हलके लालटेन के प्रकाश में रूपध्यान व भावयुक्त होकर अविरल अश्रुधारा के साथ ‘हरे राम’ महामंत्र का कीर्तन ही अधिक होता
था। यहाँ आप हाथों से ताली बजाकर व ढोलक बजाकर कीर्तन कराते थे। तथा दिन में अपनी पढ़ाई करते थे। महू छावनी में पढ़ाई व कीर्तन के साथ आप कभी कभी तपस्या करने भी चले जाते थे तथा एक सप्ताह से लेकर छ: माह के अखंड कीर्तन भी कराते थे। कीर्तन कराते हुए आपको अष्ट सात्विक भाव प्रचुर मात्रा में आते थे। कीर्तन में नृत्य करते हुए हरि हरि बोल, बोल हरि बोल का कीर्तन कराने लगते थे और अन्त में मूच्छित हो गिर जाते थे। इसी प्रकार आपके भक्तों को भी उनकी साधना भक्ति की अवस्थानुसार भाव आते थे। कई वर्षों तक जगह जगह घूमकर संकीर्तन कराते रहे। कभी कभी कुछ शास्त्रीय ज्ञान की भी बात करते।

INFORMAL DISCOURSES
सन् 1945 में आप पढ़ाई समाप्त कर महू के अतिरिक्त देश के अन्य शहरों में भी जाते और कीर्तन कराते। अब कीर्तन में बहुत भीड़ होने लगी थी। कीर्तन भजन व पद व्याख्या सुबह, दोपहर और रात्रि में होता था। आप लोगों की शंकाओं का समाधान भी करने लगे थे। अब आप लोगों के बुलाने पर सम्मेलनों में भी कभी कभी जाते थे। परन्तु आपका दयालु हृदय यह स्वीकार नहीं कर पाया कि बड़े-बड़े विद्वान् वक्ता जनता को इस प्रकार भ्रमित करके भगवान् की सही भक्ति से दूर करते चले जायें।
“हमारा बोलना भी उस जमाने में ऐसे ही था। एक बार हमने शाम को बजे बोलना शुरू किया तो सबेरे 4 बजे तक बोले। सब सो गये और आँख बन्द करके बोलते थे उस जमाने में। कौन चला गया? कौन सो गया? या सब चले गये। हमको इससे मतलब नहीं। आँख बन्द करके बोलते जा रहे हैं, पागल सरीखे। हाँ। ये तो सन् 1955 से जब चित्रकूट में सम्मेलन हुआ है तब से आँख खोलकर बोलना शुरू किया हमने।”

ORGANISED SPIRITUAL CONFERENCES
श्री महाराज जी ने सन् 1955 में चित्रकूट का सम्मेलन आयोति किया। 16 अक्टूबर 1955 से 31 अक्टूबर 1955 तक चलने वाले इस अद्वितीय सन्त सम्मेलन में समग्र भारतवर्ष के लगभग 72 सन्न और विद्वान् उपस्थित हुए थे।

दूसरे दिन से श्री महाराज जी ने बोलना प्रारंभ किया। जिसने भी उनका भाषण सुना, मंत्रमुग्ध हो गया। आबालवृद्ध, अनपढ़ और विद्वान्, पुरुष अथवा महिलायें समान रूप से उनकी ओर आकर्षित हो रहे थे। परम विद्वान् महात्मागण तथा उपदेशक भी उनका भाषण बड़े मनोयोगपूर्वक सुन रहे थे। आप प्रतिदिन 2-2, 3-3 घंटा, समस्त वेद, शास्त्र, भागवत, गीता, रामायण, आदि अनेक ग्रन्थों का उदाहरण देते हुए अपने मत का प्रतिष्ठापन कर रहे थे। शास्त्रों में आई एक दूसरे के विरुद्ध दिखने वाली बातों का भी वे समन्वय करते जा रहे थे। इन भाषणों में आपने जीव का परम चरम लक्ष्य, ईश्वर का स्वरूप, आत्मा का स्वरूप, संसार का स्वरूप, ईश्वरप्राप्ति के उपाय, ईश्वर प्राप्ति में महापुरुष की परमावश्यकता, श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष, कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग, भक्ति मार्ग में भी भक्ति की उपादेयता, सार्वभौमिकता, सर्वसुलभता आदि पर सविस्तार, सोदाहरण प्रकाश डाला। उन्होंने निराकार और साकार ब्रह्म तथा अवतार रहस्य और कुसंग का भी सविस्तार वर्णन किया।

उन्होंने पश्चिमी दार्शनिक सिद्धान्तों तथा भारतीय विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों तथा अद्वैत तथा द्वैत और उसमें भी विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत, अचिन्त्यभेदाभेद तथा पुष्टिमार्ग का सविस्तार वर्णन कर उनके सिद्धान्तों का समन्वय किया।
5 अक्टूबर 1956 से 19 अक्टूबर 1956 तक कानपुर में द्वितीय महाधिवेशन हुआ। उसमें भी तमाम बड़े-बड़े महात्माओं को बुलाया गया।

HONOURED WITH JAGADGURU TITLE
काशी विद्वत्परिषत् द्वारा काशी आने का निमंत्रण
जब राजनारायण जी शास्त्री, काशी विद्वत्परिषत् वाराणसी लौट गये। और उन्होंने वहाँ काशी विद्वत्परिषत् के अन्य विद्वानों को श्री महाराज जी के बारे में बताया तो उन लोगों ने कहा कि जो भी जाता है, वही मन्त्रमुग्ध हो कर के आता है, उनको यहाँ बुलाना चाहिए। हम लोग भी तो देखें इन लोगों की बातों में कितनी सत्यता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक लड़के को हजारों ग्रन्थों का सम्पूर्ण ज्ञान हो; क्योंकि वह कितने क्लिष्ट हैं, उन ग्रन्थों में कितनी गहराई है, यह हम लोग जानते हैं। श्री महाराज जी को उन लोगों ने काशी आने का निमन्त्रण भेजा।
उसी दिन शास्त्री जी श्री महाराज जी से मिले और उन्हें काशी आने का निमंत्रण दिया।
श्री महाराज जी का उत्तर था आप पूरे विद्वत्परिषत् की सभा को आहूत कर लीजिये। सूचना मिलने पर आ जाऊँगा।”

अब वहाँ जब श्री महाराज जी का प्रवचन प्रारम्भ हुआ, तो विनोदी स्वभावी हमारे श्री महाराज जी ने अत्यन्त सामान्य संस्कृत में बोलना शुरू किया, जिसको सुन कर के वो जो काशी के बड़े-बड़े विद्वान् थे, उन्होंने कहा- बस! यही संस्कृत है इनकी? हम तो पहले ही कह रहे थे, ये बहुत बढ़ा चढ़ा के बोल रहे हैं। लेकिन थोड़ी ही देर बाद श्री महाराज जी ने परिष्कृत संस्कृत में बोलना शुरू किया। अब कान खड़े हुए उनके, उसके बाद, सामासिक संस्कृत में बोलना शुरू किया। ये कुछ देर में अपना संस्कृत का स्तर बढ़ाते गये और उसके बाद अन्त में उन्होंने ऐसी संस्कृत में प्रवचन दिया, जो इतनी कठिन थी कि उन विद्वानों में कुछ विद्वान् कठिनता से उसको समझ पा रहे थे।

जब इस प्रकार नौ दिन प्रवचन हो गया यानी समाप्त होने वाला था तो मीटिंग हुई उन विद्वानों की। और उनके अध्यक्ष श्री नारायण शास्त्री खीस्ते ने कहा कि देखो! अब या तो कोई इन से शास्त्रार्थ से करो और या तो इनको जगद्गुरु की उपाधि देनी पड़ेगी। अब तो हम लोग फँस गये। हम लोगों ने इनको बुलाया है।

तो विद्वानों ने कहा- शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं। इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं? और तब फिर अगले दिन यानी 14 जनवरी 1957 को समस्त विद्वानों की सर्वसम्मति से श्री महाराज जी की अलौकिक प्रतिभा के आगे नतमस्तक होकर “जगद्गुरूत्तम” की उपाधि से विभूषित किया गया। इस समय उनकी आयु केवल 34 वर्ष की थी।

RAVELLED THROUGHOUT INDIA AND SPREAD KNOWLEDGE THROUGH DISCOURSES
शास्त्रीय सिद्धान्तों का निरूपण करते हुए भक्ति तत्त्व के प्रचार प्रसार के लिए श्री महाराज जी की 91 वर्षों की जीवन यात्रा उनके संघर्षमय जीवन, त्याग, तपस्या, समर्पण की पुण्य गाथा है। सनातन वैदिक धर्म प्रतिष्ठापना के लिए जिज्ञासुओं की आध्यात्मिक भूख शान्त करने के लिये, प्रेमियों को प्रेमरस पिलाने के लिये उन्होंने अपने सुख, विश्राम, भोजन की चिन्ता किये बिना जीवन पर्यन्त जगह जगह घूम घूम कर श्री कृष्ण की अनन्य निष्काम भक्ति का धुआँधार प्रचार किया है।
शहर शहर में आपकी प्रवचन श्रृंखलायें एक महीने की, 25 दिन की होती थीं। लगभग 2 घण्टा प्रतिदिन प्रवचन वह भी उघाड़े बदन सर्दी, गर्मी, बरसात हर मौसम में। प्रचार का कार्य भी स्वयं करते, प्रवचन भी स्वयं देते।

कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को भी जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाना उनकी प्रवचन शैली की विशेषता है। गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय सिद्धान्तों को इतनी मनमोहक सरल शैली में प्रस्तुत करते थे कि मंद से मंद बुद्धि वाले भी निरन्तर श्रवण करने से ऐसे तत्त्वज्ञ बन जाते हैं, जो बड़े-बड़े विद्वान् तार्किकों को भी तर्कहीन कर देते हैं। सरलता और सरसता के साथ-साथ दैनिक जीवन के क्रियात्मक अनुभवों का मिश्रण उनके प्रवचन की बहुत बड़ी विशेषता है। बोल चाल की भाषा में ही वह कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को जीवों के मस्तिष्क में

भर देते हैं। श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में सक्षम हो सकता है। जब प्रवचनों में प्रमाणस्वरूप शास्त्रों वेदों के श्लोक बोलते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है, मानों समस्त शास्त्र वेद उनके सामने हाथ जोड़कर उपस्थित हैं और वे एक के बाद एक पन्ने पलटते जा रहे हैं। काशी विद्वत्परिषत् द्वारा प्रदत्त उपाधि श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावरीण उनके प्रवचनों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।

DEVOTIONAL LITERATURE
श्री महाराज जी ने हजारों भजन और कीर्तन की रचना की जो हृदय में भक्ति भाव जगाते हैं। उनमें से सबसे ऊपर है प्रेम रस मदिरा. श्री महाराज जी द्वारा रचित 1008 पद जिसमें श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन किया गया है।
प्रेम रस सिद्धान्त ग्रन्थ में श्री महाराज जी द्वारा धर्म ग्रन्थों के विरोधाभासी सिद्धान्तों का सरल भाषा में समन्वय किया गया है।
श्री महाराज जी ने हमें अन्य कई भजन पुस्तकों से नवाजा है जैसे:
ब्रज रस माधुरी, युगल माधुरी, युगल शतक, भक्ति शतक, युगल रस, श्यामा श्याम गीत, राधा गोविंद गीत, कृष्ण द्वादशी और राधा त्रयोदशी।

TRAINED PREACHERS
वेदों के सही सही अर्थ को न जानने के कारण संसार में अज्ञानान्धकार को दूर करने के लिए आपने स्वयं तो जगह जगह भ्रमण करके सत्संग का लाभ दिया ही है साथ ही उन्होंने हर जाति हर सम्प्रदाय हर वर्ग के प्रचारक बनाये। स्वयं ही उनको शिक्षित किया और विश्व भर में वैदिक सिद्धान्तों के प्रचार प्रसार का आदेश दिया। उनके द्वारा प्रशिक्षित प्रचारक, देश-विदेश में हिन्दी अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में भी सनातन वैदिक धर्म का प्रचार करते हुए असंख्य जीवों को भगवान् की ओर अग्रसर करके आध्यात्मिक लाभ प्रदान कर रहे हैं।
स्वयं ही उन्होंने प्रचारकों को वेद शास्त्र का ज्ञान दिया, संस्कृत का उच्चारण सिखाया, उनकी शंकाओं का समाधान करते हुए उनका तत्त्वज्ञान परिपक्व किया जिससे वे उनके वैदिक सिद्धान्तों का सही सही निरूपण कर सकें।

CHARITABLE WORKS
पूर्णतया निःशुल्क धर्मार्थ चिकित्सालय –
जगद्गुरु कृपालु परिषत् ने अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधाओं से युक्त तीन 100% नि:शुल्क अस्पतालों की स्थापना की है।
जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय भक्ति-धाम, मनगढ़,
जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय रँगीली महल,
जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय, वृन्दावन।

पूर्णतया नि:शुल्क शैक्षिक संस्थान, कुण्डा, प्रतापगढ़
जगद्गुरु कृपालु परिषत् ने अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त तीन 100% नि:शुल्क शैक्षिक संस्थान की स्थापना की है।
कृपालु बालिका प्राइमरी स्कूल (सन् 2008)
कृपालु बालिका इन्टर मीडिएट कॉलेज (सन् 1978)
कृपालु महिला महाविद्यालय (सन् 1998)

अन्य सेवाएँ
*दिव्यांगजनों की सेवा – दिव्यांगजनों के रोजगार के लिये आर्थिक सहयोग, ह्वील चेयर, ट्राईसाइकिल आदि भी दी जाती है।
*नेत्रहीन एवं कुष्ठ रोगी सेवा – ब्रज मण्डल में निवास कर रहे नेत्रहीनों एवं कुष्ठ रोग से पीड़ितों के लिये खाद्य सामग्री तथा आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ नियमित रूप से दान दी जाती हैं।
*साधु भोज, ब्रह्म भोज एवं विधवा भोज – जिनमें हजारों जरूरतमन्दों को भोजन के साथ-साथ कम्बल, वस्त्र, छाता, बर्तन इत्यादि उपयोगी वस्तुएँ एवं दक्षिणा भी दी जाती है। 2
*ग्रामवासियों को दान – गरीब ग्रामवासियों को भी आवश्यकतानुसार समय-समय पर कम्बल, वस्त्र, बर्तन इत्यादि दान में दिये जाते हैं।
*ग्रामीण निर्धन कन्याओं का विवाह
*जगद्गुरु कृपालु परिषत् द्वारा राष्ट्रीय आपदाओं में सहयोग
*रोजगार प्रदान करना – जगद्गुरु कृपालु परिषत् द्वारा हजारों लोगों को रोजगार प्रदान किया जा रहा है। इससे उनको न केवल जीविका का साधन प्राप्त हुआ है बल्कि आध्यात्मिक लाभ भी हुआ है।
*नशा विरोधी अभियान – आपके सान्निध्य में साधना करने वाले सम्पूर्ण विश्व में लाखों-लाखों लोग किसी भी प्रकार का नशा नहीं करते।
*शौचालयों का निर्माण – स्वच्छ भारत अभियान के अन्तर्गत जे.के.पी. द्वारा मनगढ़ एवं आसपास ग्रामवसियों के लिए शौचालय बनाये जा रहे हैं अभी तक 250 से भी अधिक शौचालय बनाये जा चुके हैं वृन्दावन, बरसाना के आस पास भी स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए अनेक शौचालय बनाये गये हैं और भी बनाये जायेंगे।

ASCENSION TO THE DIVINE ABODE
11 नवम्बर सन् 2013 को ही करुणाकर कृपालु महाप्रभु ने अपनी प्रकट लीलाओं को इस भूलोक पर विराम दे दिया था। उसी दिन उनका दिव्यातिदिव्य महाप्रयाण हुआ किन्तु लौकिक दृष्टिकोण से उनका महाप्रयाण 15 नवम्बर को हुआ।
आजकल उपर्युक्त सभी जनहित कार्य जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की तीनों सुपुत्रियों सुश्री डॉ. विशाखा त्रिपाठी, सुश्री डॉ. श्यामा त्रिपाठी, सुश्री डॉ. कृष्णा त्रिपाठी के नेतृत्व में अत्यधिक सुचारू रूप से चल रहे हैं।

SHRI MAHARAJJI’S ASSOCIATION
श्री महाराज जी अधिकतर अपने आश्रमों, मनगढ़, बरसाना, वृंदावन और दिल्ली में ही रहते थे। हजारों की संख्या में लोग श्री महाराज जी का संग करने और संकीर्तन में भाग लेने के लिए इन केंद्रों पर आते थे। श्री महाराज जी समय समय पर विभिन्न शहरों और कस्बों का दौरा भी करते थे जहाँ इनके दिव्य प्रवचनों को सुनने के लिए विशाल संख्या में श्रोता आते थे। श्री राधा कृष्ण की लीलाओं और गुणों का उनका विशद वर्णन दर्शकों को कृष्ण प्रेम के अनुभव से रोमांचित कर देता था।

GURU OF THE ENTIRE WORLD
स्वाभाविक रूप से आनंद की प्राप्ति के लिए तरसने वाले प्रत्येक जिज्ञासु जीव को श्री महाराज जी में आश्वासन मिला । इन्होंने मानवता के उत्थान के लिए अथक परिश्रम किया। इन्होंने बड़ी आसानी से आध्यात्मिक संदेहों को दूर किया और प्रभावी ढंग से एक स्पष्ट और क्रियात्मक मार्ग प्रकट किया जो भगवान् की ओर ले जाता है। सही मायने में वे जगद्गुरु, यानि पूरे विश्व के गुरु थे।